झटपट तलाक़ कितना सही? — अधिवक्ता अनामिका पाराशर
12/24/2025
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शादी… दो दिलों का पवित्र बंधन।
एक ऐसा रिश्ता जो सिर्फ़ दो व्यक्तियों को नहीं, बल्कि दो परिवारों, दो सोच और दो ज़िंदगियों को जोड़ता है। भारतीय समाज में विवाह को जीवन का सबसे अहम संस्कार माना गया है। इसके उलट, तलाक आज भी एक ऐसा शब्द है, जिसे सुनते ही दुख, टूटन और असफलता की भावना उभर आती है।
लेकिन बदलते समय के साथ रिश्तों की परिभाषाएं भी बदली हैं। अब सवाल ये है—
क्या हर टूटी शादी को ढोते रहना ज़रूरी है?
और अगर रिश्ता पूरी तरह खत्म हो चुका है, तो “झटपट तलाक़” कितना सही और कितना खतरनाक हो सकता है?
⚖️ भारत में तलाक: एक लंबी कानूनी लड़ाई
भारत में फैमिली कोर्ट की फाइलें इस बात की गवाह हैं कि तलाक अक्सर एक लंबा, थकाने वाला और भावनात्मक रूप से झकझोर देने वाला संघर्ष बन जाता है। सालों तक तारीखें, बयान, समझौते और फिर टूटती उम्मीदें—यही आम तस्वीर रही है।
हालांकि, बीते कुछ वर्षों में सुप्रीम कोर्ट और अब हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट ने तलाक की प्रक्रिया को लेकर अपने रुख में बड़ा बदलाव किया है।
इस बदलाव ने “तलाक” को तेज़, स्पष्ट और अपेक्षाकृत सरल बनाने की दिशा में कदम बढ़ाया है।
📜 म्यूचुअल कंसेंट डिवोर्स क्या है?
तलाक के कई कानूनी आधार होते हैं, लेकिन म्यूचुअल कंसेंट डिवोर्स (आपसी सहमति से तलाक) सबसे कम विवादित और अपेक्षाकृत शांत तरीका माना जाता है।
हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 की धारा 13B(2) के तहत—
पति-पत्नी कम से कम एक साल से अलग-अलग रह रहे हों
दोनों आपसी सहमति से तलाक चाहते हों
पहले मोशन के बाद कानून में 6 महीने का “कूलिंग ऑफ पीरियड” तय किया गया था, ताकि:
गुस्से या भावनाओं में लिया गया फैसला बदला जा सके
सुलह की कोई गुंजाइश बची हो तो उसे आज़माया जा सके
यानी कुल मिलाकर डेढ़ साल का इंतज़ार।
⚖️ सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला (2017)
लेकिन व्यवहार में देखा गया कि कई मामलों में यह कूलिंग ऑफ पीरियड सिर्फ़ समय की बर्बादी बनकर रह गया।
इसी को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने
अमरदीप सिंह बनाम हरवीन कौर (2017) 8 SCC 746 केस में ऐतिहासिक फैसला सुनाया।
कोर्ट ने कहा:
6 महीने का कूलिंग ऑफ पीरियड अनिवार्य (Mandatory) नहीं बल्कि निर्देशात्मक (Directory) है
अगर शादी पूरी तरह टूट चुकी है
सुलह की कोई संभावना नहीं
एलिमनी, बच्चों की कस्टडी जैसे मुद्दों पर सहमति हो चुकी है
तो कोर्ट इस अवधि को माफ (Waive) कर सकती है।
🏛️ 17 दिसंबर: दिल्ली हाई कोर्ट की नई व्याख्या
अब 17 दिसंबर को दिल्ली हाई कोर्ट ने
शिक्षा कुमारी बनाम संतोष कुमार केस में और बड़ा स्पष्टीकरण दिया।
कोर्ट ने कहा:
आपसी सहमति से तलाक के मामलों में एक साल तक अलग रहने की शर्त भी अनिवार्य नहीं है।
अगर दोनों पक्ष सहमत हैं, तो यह अवधि भी वेव की जा सकती है।
यानी अब—
एक साल का अलगाव
6 महीने का कूलिंग ऑफ
दोनों ही शर्तें परिस्थितियों के अनुसार हटाई जा सकती हैं।
⏳ अब तलाक में कितना समय लग सकता है?
इसका सीधा असर यह हुआ है कि:
पहले जहां तलाक में डेढ़ साल या उससे अधिक लगते थे
अब वही तलाक कुछ महीनों, और कुछ मामलों में हफ्तों में भी संभव है
शर्त यही है कि:
दोनों पक्ष सहमत हों
सेटलमेंट साफ़ हो
कोर्ट को लगे कि रिश्ता पूरी तरह खत्म हो चुका है
👍 झटपट तलाक़: राहत किनके लिए?
✔️ टॉक्सिक रिश्तों में फंसे लोग, जो मानसिक या भावनात्मक पीड़ा झेल रहे हैं
✔️ घरेलू कलह से जूझते कपल, जो रोज़-रोज़ की लड़ाइयों से आज़ादी चाहते हैं
✔️ बच्चों वाले दंपति, जो नहीं चाहते कि बच्चे कोर्ट-कचहरी के माहौल में बड़े हों
✔️ वर्किंग कपल, जो अपनी ज़िंदगी का अगला अध्याय शांति से शुरू करना चाहते हैं
कई जज भी मानते हैं कि ऐसे मामलों में कोर्ट सिर्फ़ “टाइम पास” करने की जगह बन जाती है।
⚠️ लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू…
हर बदलाव अपने साथ जोखिम भी लाता है।
🔴 तलाक के मामलों में बढ़ोतरी
NJDG के अनुसार देश में पहले ही 5 करोड़ से ज़्यादा केस पेंडिंग हैं, जिनमें मैट्रिमोनियल केस लाखों में हैं।
🔴 अनुमान है कि देश में रोज़ाना करीब 100 तलाक केस फाइल होते हैं।
अर्बन एरिया में तलाक की दर में 30–40% तक बढ़ोतरी देखी जा रही है।
🔴 इमोशनल फैसलों का खतरा
युवा कपल में भावनाएं तेज़ होती हैं।
कूलिंग ऑफ पीरियड में कई बार—
परिवार की दखल
थोड़ी दूरी
समय के साथ सोच में बदलाव
से सुलह हो जाती है।
अगर ये समय ही खत्म हो जाए, तो: 👉 कई शादियां गुस्से, तनाव और परिस्थितियों की बलि चढ़ सकती हैं।
⚖️ अब अदालतों की भूमिका और अहम
अब कोर्ट की जिम्मेदारी और बढ़ गई है कि:
वो जल्दबाज़ी में लिए गए फैसलों को पहचानें
यह सुनिश्चित करें कि सहमति वास्तविक है, मजबूरी नहीं
खासकर महिलाओं और बच्चों के हित सुरक्षित रहें
🧠 समाज के लिए बड़ा सवाल
हम क़ानूनी तौर पर बदल रहे हैं, लेकिन क्या सामाजिक तौर पर भी तैयार हैं?
क्या तलाक का स्टिग्मा पूरी तरह खत्म होगा?
क्या अर्बन एरिया में तलाक एक “चलन” बन जाएगा?
जब दोनों पति-पत्नी आर्थिक रूप से स्वतंत्र हों, तो क्या रिश्तों की सहनशीलता और कम होगी?
✍️ निष्कर्ष
झटपट तलाक़
कुछ के लिए आज़ादी है,
कुछ के लिए जल्दबाज़ी।
कानून ने रास्ता आसान कर दिया है,
लेकिन रिश्तों का फैसला अब भी सोच-समझकर ही होना चाहिए।
क्योंकि
तलाक एक कानूनी प्रक्रिया नहीं,
एक पूरी ज़िंदगी का मोड़ होता है।
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