कैसे और किस पे विश्वास करें…?
क्या अभिशाप था एक लड़की होना,
एक कली खिली थी मां के आंचल में,
उसे कन्या भ्रूण हत्या का शिकार बनाया गया,
पुरुष प्रधान समाज में बेटे की लालच में,
एक मासूम को अपनी महत्वाकांक्षा की बली चढाया गया।
जो बच गई वो मां की कोख में सलामत,
माना हुए कहीं जश्न भी, तो कहीं दरिंदो का मन ललचाया है,
क्या कसूर उस मासूम का जो उसे अपनी हवस का शिकार बनाया है।
कैसे विश्वास करे कोई किसी पे,
अपनों ने ही कई दफा उसपे हाथ आजमाया है,
क्या कोई खिलौना है लड़कियां, तुमने उन्हें अपना घिनौना खेल बनाया है।
आज वो सुरक्षित नहीं जन्मदाता के हांथो में भी,
जन्मदाता ने ही मौत की सय्या पे सुलाया है।
बांधा जिन हाथों में रक्षासूत्र, उसने भी उसे पराया बताया है,
दहेज के नाम पे न जाने कितनी बहुओं को जलाया है,
पवित्र अग्नि के समक्ष बंधी जिससे परिणय सुत्र में,
उसी ने उसे प्रताड़नाओं की अग्नि में जलाया है,
सोच हैवानि तुम्हारी और दौष उनके बदलते स्वरूप को बताया है,
लड़की हो, औरत हो, माता हो, स्त्री हो, बहू हो,
एक औरत ने ही औरत के
अस्तित्व को दबाया है।
कैसे और किस पे विश्वास करे अब…?
सबने हर दफा उन्हे ही गलत ठहराया है।
nice
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